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धर्म

गैर ब्राह्मण महिला पुजारी ने करवाई गणपति पूजा, बदलते वक्त के साथ समाज की मानसिकता को भी दी चुनौती

मुंबई/नई दिल्ली: हिन्दू धर्म में लम्बे समय से पूजा-पाठ कराने का अधिकार केवल पुरुषों के पास रहा है. उसमें भी खासकर पूजा-पाठ का जिम्मा ब्राह्मण ही संभालते रहे हैं, लेकिन मुंबई की एक महिला इस परंपरा को बदलने का काम कर रही हैं. गैर ब्राह्मण महिला पुजारियों की एक टोली मुंबई और उसके उपनगरीय इलाकों में इस पेशे में उतर चुकी है. हालांकि समाज में अभी भी इनकी स्वीकार्यता सामान्य रूप से नहीं हो पाई है. पहली दफा महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण महिला पुजारी को इस बार गणपति उत्सव में गणेश पूजा के लिए बुलाया गया.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी एक खबर के अनुसार अब मुंबई, नवी मुंबई और ठाणे से इन महिलाओं को शादी-ब्याह, यगोपवीत, शनि शांति पूजा के अलावा दशकर्म की पूजा के लिए भी बुलाया जा रहा है. मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के अन्य इलाकों के लोगोंं के बीच इन महिला पुजारियों की डिमांड काफी बढ़ गयी है.

101 वर्षीया रामेश्वर कर्वे की हैं ये पहल
इसकी शुरुआत महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के छोटे से गांव अलीबाग के रहने वाले 101 वर्षीय सेवानिवृत टीचर रामेश्वर कर्वे ने की. पिछले 18 साल के अंदर उन्होंने 150 गैर ब्राह्मण महिलाओ को संस्कृत की पढाई करवाई है और अब वो सर्टिफाइड पुजारी हैं. ये अपने इस नये पेशे की शुरुआत करने से पहले गणपति की पूजा अपने घर में कर करती हैं.


गैर-ब्राह्मणो और महिलाओं को करना पड़ा था भेद-भाव का सामना
दो साल पहले पूरे देश में महिलाओं के संगठन के द्वारा महाराष्ट्र के अहमदनगर में प्रसिद्ध शनि शांति मंदिर में किये गए आंदोलन की गूंज उठी थी. शांति मंदिर के पुजारियों ने वैसी महिलाओं की मंदिर में एंट्री की मनाही जिनका पीरियड्स शुरू हो गया है गए .. इसके बाद मचे बवाल के बाद देश भर में ऐसे नियमों पर सवाल उठना शुरू हो गया. महाराष्ट्र में पूर्व में भी भी गैर-ब्राह्मणो और महिलाओ को लम्बे समय तक भेद भाव और छुआछूत का सामना करना पड़ा है. लेकिन सामाजिक क्रांति की धरती रहे महाराष्ट्र में दलितों के अधिकार के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से लेकर ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के अलावा बाबा नामदेव तक ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ हमेशा आवाज उठायी हैं.

कार्वे के प्रयासों से महिलाओं ने पायी संस्कृत में शास्त्री की उपाधि
संस्कृत में शास्त्री की डिग्री और कर्मकांड में महारत हांसिल करने वाली इन महिला पुजारियों ने रामेश्वर कार्वे के प्रयासों को अपनी सफलता का कारण बताया हैं. कार्वे की शिष्या रहीं सुरेखा पाटिल (54 वर्षीय) बताती हैं, "कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ने के बाद ऐसा करना काफी मुश्किल था. लेकिन घर की जिम्मेवारियों को संभालते हुए उन्होंने 3 घंटे की क्लास को कभी भी मिस नहीं करना चाहा". सुरेखा आज भी गुरूजी के धैर्य और प्रयास की प्रशंसा करते नहीं थकती हैं. इन क्लासेज के दौरान उन्हें श्लोक को पढ़ना और उसके उच्चारण को सही तरीके से करना सिखाया जाता है.

कार्वे ने गैर-ब्राह्मणों को संस्कृत शिक्षा देने की कि पहल
ख़ास जाती के अधिकार वाली संस्कृत की पढाई और शिक्षा को चुनौती देने वाले रामेश्वर कार्वे ने महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में 5 संस्कृत स्कूल के संस्थापक रहे हैं. उनकी बेटी वसंती देव के अनुसार "उनके शिक्षाविद पिता ने रायगढ़ जिले में 5 संस्कृत विद्यालयों की शुरुआत की हैं और उनका उद्देश्य सदैव संस्कृत की शिक्षा को गैर-ब्राह्मण जातियों तक पहुंचाना था."

वीर सावरकर की प्रेरणा से शुरू किया संस्कृत अध्यापन का कार्य
उनकी बेटी वसंती देव के अनुसार ,"रामेश्वर कार्वे महाराष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकर से 1920 में उनकी नजरबंदी के दौरान में मिले थें और तात्या के नाम से जाने जाने वाले उनके पिता को उन्होंने संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार करने को कहा था और उनसे प्रभावित हो कर कार्वे ने संस्कृत को आम जनमानस तक पहुंचाने का काम शुरू किया. "

पूजा-पाठ को लेकर महिलाओं पर थोंपी गयीं वर्जना को दी जा रही है चुनौती
महिलाओं ने शिक्षा के अधिकार को पाने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी हैं. उन्हें गांव में रहने वाले पुजारियों ने पीरियड्स के समय मन्त्र पढ़ने और मंदिर जाने की मनाही कर रखी थी. साथ हीं उन्हें हमेशा बताया गया था की इस दौरान भगवान् को याद करने ,मन्त्र पढ़ने और पूजा पाठ करने पर वो दंड के भागी होंगे. ऐसे मनोवृति को आज की लडकियां चुनौती दे रही हैं.

अभी भी गैर-ब्राह्मण महिला पुजारियों को सहजता से नहीं किया जा रहा हैं स्वीकार
लोगो का मानना हैं की समाज की मानसिकता बदलने में अभी भी वक्त लगेगा . महिला पुजारी डालवी का कहना है," लोग उनसे सवाल करते नजर आते हैं की उन्हें मंत्रचारण सही तरीके से कर पाते हैं और कर्मकांड की जानकारी हैं या नहीं . " डालवी एक वाक्या बताती हैं,"जब वो एक घर में सत्यनारायण पूजा कराने गयी थीं, जिसमे पूजा के अंत में पंडित जी के चरणों को छू लोग आशीर्वाद लेते हैं लेकिन अभी पूजा के बाद वो सिर्फ प्रसाद ले कर निकल जाते हैं. " समाज में अभी भी लोग गैर-ब्राह्मण महिला को पुजारी के रूप में नहीं स्वीकार पा रहे हैं.

सौजन्य ; ज़ी न्यूज

16 September, 2018

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